सोमवार, 18 मई 2009

इसलिए बदलाव के लिए वोट नहीं दिया जनता ने

लोकत्रंत में जनता बेहतर बदलाव के लिए वोट देना चाहती है, कार्यकर्ता कैडर के लिए काम करना चाहता है और दोनों ही चाहते हैं कि उन्हें यह दृश्य स्पष्ट दिखाई दे। लेकिन पूरे दो महीने चले चुनावी अभियान में जनता बेहतरी का मुद्दा ढूंढती रही और कार्यकर्ता कैडर। कार्यकर्ता की बात करें तो कांग्रेस में कैडर की बात कभी होती नहीं है और हो भी नहीं सकती। सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के बीच कैडर की बात होती है। वामपंथियों ने जहां सत्ता लोलुपता में चुनाव से ऐन पहले तक अपने कैडर के साथ खेला, वहीं भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता पूरे चुनाव अभियान में उन मुद्दों को ढंूढता रहा, जिनकी दम पर वह केन्द्र में अपनी सरकार की स्थापना करना चाहता था। दोनों ही तरफ मायूसी है। वामदलों के गढ़ पश्चिम बंगाल में दशकों बाद लाल किला ढह गया है और भारतीय जनता पार्टी की हालत किसी से छुपी नहीं हैं।
चुनाव से पहले तक जनता को भी पता था कि वह अब तक की सबसे भीषण मंहगाई से कराह रही है, आतंकवाद से थर-थर कांप रही है, उसके दिल में शंकराचार्य को जेल में ढूंसने और साध्वी को मांस खिलाए जाने की टीस भरी थी, वह क्वात्रोची मामले पर भी भ्रष्टाचार की बात कर रही थी, रामसेतु और अमरनाथ के खिलाफ किए जा रहे षड़यंत्र भी सब समझ रहे थे। सभी तक रहे थे कि मौका आने दो हिसाब चुकाएंगे। मौका तो आ गया, लेकिन जिस भाजपा के पास संप्रग सरकार के खिलाफ रामवाणों से भरा तरकश था, वह तरकश कुछ अति चतुर योजनाकारों के हाथ लग गया और इन हाइटैक योजनाकारों को सिर्फ एक ही तीर दिखाई दिया क्वक्वमजबूत नेता निणाüयक सरकारंं। समझ नहीं आया कि भाजपा जब एक ऐसे विचार से प्रेरित है जहां सवोüच्च अधिकारी भी स्वयं को गुरूतुल्य नहीं मानते और भगवा ध्वज को आगे करके कह दिया कि यही हमारे क्वगुरूं हैं। उन्होंने तर्क दिया कि मनुष्य तो अपने जीवन काल में कभी भी पतित हो सकता है।
जनसंघ से लेकर भाजपा तक निर्माण के सौपानों में अनगिनत साधकों ने अपनी गंगोत्री की इसी प्रेरणा से स्वयं को नैपथ्य में रखकर जीवन होम किया और संगठन खड़ा किया। यह सही है कि अटलजी के समय भी उनके नाम पर चुनाव लड़ा गया था लेकिन क्वअटलजीं जैसी विभूतियां अपवाद ही होती हैं क्या क्वअटलजीं की तरह सर्व संतुलन का सिद्धांत सभी पर लागू हो सकता है। सवाल उठता है कि हम अपनी पहचान बदलकर क्यों जीना चाहते हैं। हम जिएं तो जिएं, लेकिन जहां सामुहिकता सवोüपरि होती हैं वहां व्यक्तित्व में बदलाव की सामुहिक मीमांसा भी होती है। कार्यकर्ता की भावना तो आहत होती ही है। चलो यह मान भी लिया जाए कि अटलजी के नाम पर ही पिछले चुनावों में वोट मिले थे, तो सवाल उठता है कि इस चुनाव अभियान की सामग्री से उनके क्वकामं गायब क्यों थे। सिर्फ एक अपील जिसमें अटलजी की ओर से कहा गया कि क्वआडवाणी जी मेरे अधूरे कामों को पूरा करेंगें के अलावा अटलजी चुनाव अभियान में कहां थे। किसने बात की अटलजी के उन सपनों की जिसमें स्वçर्णम चतुर्भुज योजना की चमचमाती देशव्यापी सड़कें थीं, जिसमें गांव गांव तक प्रधानमंत्री सड़क योजना थी। कांग्रेस नीत सरकार ने इन योजनाओं का बंटाढार कर दिया, लेकिन यह मुद्दा चुनाव में उठ नहीं सका। अफजल की फांसी, कसाब की मेहमाननवाजी को जनता तक सलीके से पहुंचाने का अभियान कहीं दिखाई नहीं दिया। किसानों की आत्म हत्याएं और मंहगाई की तुलनात्मक तालिकाएं घर-घर तक पहुंच नहीं सकीं, तो फिर पल पल में भूलने वाली जनता से यह उमीद क्यों की जानी चाहिए कि वह बदलाव के लिए वोट देती। जनता को तो बस यही समझ आया कि इस चुनाव में व्यक्तिगत अपमान ही एक मात्र मुद्दा है, कोई लल्लू है तो कोई पंजू है। कांग्रेस तो चाहती ही यही थी कि असल मुद्दे उठ ही न पाएं। व्यक्तिगत छीटांकशी में भी मनमोहन सिंह की छवि उनकी वार्ता शैली के कारण कम खराब हुई और वे भले आदमी ही बने रहे। जैसे तैसे आतंकवाद का मुद्दा उठा भी तो कंधार विमान अपहरण काण्ड का मुंह ही कांग्रेस ने भाजपा की ओर खोल दिया। भाजपा दमदारी से इसका जवाब नहीं दे पाई।
जहां तक भाजपा कार्यकर्ता की बात है तो वह विचार के लिए संघर्ष का हामी रहा है, लेकिन इस चुनाव में उसने देखा कि एक समय जूता दिखाने वाले वरैयाओं और हमें सांप्रदायिक कहने वाले श्ुाक्लाओं की वलइयां लेना ही हमारी प्राथमिकता है तो क्या करना है काम करके। यानि विचार का अचार बनते देख घर-घर पर्ची बांटने वाला कार्यकर्ता भी उदासीन चलता रहा। परिणामतज् मध्यप्रदेश जैसे राज्य में भी भाजपा को झटका लगा है। चुनाव के दौरान हमारे एक मित्र ने टिप्पणी की थी कि यह लोकसभा चुनाव है इसमें मामा शिवराज सिंह की क्वलाड़ली लक्ष्मीं के लिए वोट नहीं पड़ेंगे।
भाजपा इस चुनाव में सिर्फ पराजित नहीं हुई है, उसने कांग्रेस के हाथ वह मौका दे दिया है जिसकी तलाश में वह लंबे समय से थी। वंशवाद की बेल फिर हरिया गई है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन क्या सुधरा, कांग्रेस में चारणों की लंबी कतार राजकुमार के चमत्कार का सत्कार करने में जुट गई है। मनमोहन सिंहजी को अपने पहले ही बयान में राहुल को मंत्रिमंडल में लेने की चर्चा तो करनी ही पड़ी। यह चर्चा अगले चुनाव तक कहां पहंचेगीं, सहज समझ लेना चाहिए भाजपा के नीति निर्धारकों को, जहां द्वितीय पंक्ति में मनमुटाव दिखता है और तृतीय पंक्ति में आत्मविश्वास डगमगाया हुआ है। अगले चुनाव में राजकुमार और राजकुमारी की सवारी निकलेगी, तो उसे लगाम कौन लगाएगा। भाजपा के भीतर इस बात पर तुरंत फैसला होना ही चाहिए। यह तभी हो सकेगा जब अटलजी की पक्तियां स्मरण रहेंगी कि -
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता।
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।।
-लोकेन्द्र पाराशर

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