सोमवार, 18 मई 2009

मायावी ठोकर ने दिलाई कांग्रेस को जीत

लोकसभा चुनाव परिणामों पर बहस जारी है। मीडिया में घुस आए तमाम चारण भाटों ने राजकुमार की जय जयकार कर रखी है। राजकुमारी के पांव पखारने को हमारी बिरादरी के तमाम बंधु बड़ी-बड़ी परात लेकर घूम रहे हैं। शोर इस कदर मचा रखा है जैसे अचानक अवतार हुए हैं और अब तो भारत वर्ष में खुशहाली की पींगे फूटने वाली हैं। अचानक पूरा देश युवा हो गया है। जिस पन्ने पर देखो, जिस स्क्रीन पर देखो, यौवन हिलोरें ले रहा है। इस नक्कारखाने में सच फिर कहीं खो रहा है। क्योंकि यह सच नहीं है कि कांग्रेस को पुनज् सत्ता राहुल की कथित परिपक्वता और प्रियंका की इंदिरा छवि के कारण मिल गई है। सच वह है जिसमें छलावा है, भावनाओं के साथ खिलबाड़ है। उस समाज के साथ धोखे का प्रतिफल है जो श्रमशील है, आज भी भावुक है और आज भी कहीं ऐसा स्थान ढूंढ़ रहा है जहां कुछ लोग उसे इंसान की तरह समान तो दे सकें।
यह वह वर्ग है जिसे आदमी के बीच भेट करने वाले दलित, शूद्र जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। यह वह वर्ग है जो लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति के लिए सदैव लंबी कतारों में खड़ा होता आया है। यह वही वर्ग है जिसे महात्मा गांधी ने दुलारा और डा. अबेडकर नेे समान से पुकारा। इस दुलार और समान के वशीभूत यह भोला वर्ग गांधी और बाबा साहब के जाने के बाद भी कांग्रेसियों को अपना माई बाप समझता रहा। चालाक कांग्रेसियों ने वर्षों तक इस भावुक वर्ग को खूब भुनाया। इंदिरा गांधी वर्षों तक गरीबी हटाओ का नारा दे देकर सत्ता हथियाती रहीं। भले गरीबी नहीं मिटी, गरीब मिटते रहे। उनका बजूद सिर्फ वोट तक ही रहा, बाकी सब फलीभूत होते रहे।
जब तक यह खेल चलता रहा, कांग्रेस का राजनैतिक चूल्हा भी जलता रहा। लेकिन यह खेल तब बिगड़ना शुरू हुआ जब पंजाब के रोपड़ जिले में जन्मे कांशीराम को समझ आया कि हमारे वर्ग के लोग लगातार ठगे जा रहे हैं। नारा गूंजा क्वबाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेंगे पूरां। कांशीराम के बारे में कोई कुछ भी कहे लेकिन उन्होंने दलितों में जागरूकता का अभियान पूरी निष्ठा और दृढ़ता से चलाया। देश में जातिवाद भड़का, समाज में दूरियां बढ़ी, यह सब सही है, लेकिन जब भी कोई सामाजिक क्रांति होती हैं तो उसके कुछ दुष्प्रभाव भी होते हैं। कांशीराम को इसका कोई राजैतिक अथवा भौतिक प्रतिफल कभी नहीं मिला। वे जिस मिशन में लगे रहे, उसका प्रतिफल उनकी शिष्या मायावती को मिला और शायद वहीं से बाबा साहब के मिशन को पूरा करने का कांशीराम का सपना चूर होने लगा। बीच बीच में कांशी-माया के बीच दूरियों की खबर आने लगीं और जिंदगी के अंतिम दिनों में वे मायावती के मायाजाल के आगे बेबश अपने परिवार तक को अपनी अंतिम इच्छा नहीं बता पाए।
कांशीराम की मृत्यु के बाद माया का असली स्वरूप सामने आया, जब भूखे और गरीबों की दम पर सिंहासन पर बैठकर उन्होंने करोड़ों की सपçत्त का स्वाद चखा और क्वहर कीमत पर सत्ता चाहिएं के फामूüले पर चलकर बहुजन को सर्वजन बनाने की नाटंकी कर डाली। सत्ता तो फिर मिल गई पर किस वेदना की कीमत पर यह क्वमायां में मगरूर माया को समझ नहीं आया। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जिस प्रकार टिकिट वितरण किया गया, उसके परिणाम इस लोकसभा चुनाव में बसपा को भुगतना पड़े हैं। क्योंकि विधानसभा चुनाव में जीतकर आए चेहरों को देखकर वंचित वर्ग के मतदाता को मन ही मन यह पीड़ा हुई कि जब दबंगों की पालकी ही उठानी है तो फिर बसपा को अपना कहने की जरूरत की क्या? वंचित वर्ग का मतदाता बसपाई घात के पश्चात से गुजर रहा है, यह कांग्रेस की समझ में आ गया और जैसे खोया सोना मिल गया हो, उसी तरह कांग्रेस सक्रिय हो गई और पिछले कई महीनों से वंचित वर्ग को आकर्षित करने के लिए प्रयास किए। लोहा गरम था, सो राहुल भैया का गरीब की झौंपड़ी में जाना, यानि भावुक मतदाता को पुनज् बरगलाने का मौका कांग्रेस को मिल गया। यही वह मतदाता है जिसके बसपाई हो जाने से कांग्रेस मिट रही थी और अब वही मतदाता जब बसपा के पाखण्ड को समझ गया तो कांग्रेस की तरफ मुड़ गया है। यानि कांग्रेस को 18 साल बाद मिले जन समर्थन का और कोई कारण नहीं है। 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई थी, तब से कांग्रेस के वोट में सेंध मारी हुई और जब बसपा जवान हुई तो उत्तर प्रदेश जैसे गढ़ में कांग्रेस लड़ खड़ा गई। कहने का मतलब सीधा है, कांगे्रस को मिला वोट, वंचितो को मिली मायावी चोट का मिशन है, बाकी कुछ नहीं। जैसा कि पहले कहा कि यह वर्ग आज भी अधिकांश भावुक है, अनपढ़ है, इसलिए भीड़ की ठेलमठेल में चलता है। राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे उसके चुनावी मुद्दे नहीं होते। दुभाüग्य है कि जो कांगे्रस इस वर्ग को 40-भ्0 वषोü तक सिर्फ बरगलाती रही, आज वह वग्ाü फिर उसी ठोकर वाली देहरी पर पहुंच रहा है। बसपा के सत्ता प्रेम के कारण वंचित वर्ग में यह टूटन उत्तर प्रदेश में तो बड़े पैमाने पर हुई, जबकि अन्य राज्यों से भी बसपा की टांगे उठ गई। और वोटों का थोड़ा सा इधर उधर होना भी चुनाव में बडे़ परिवर्तन दिखा देता हैं।
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग सामाजिक समरसता का जरिया बन सकती थी। जिनको इस समरसता की चिंता करनी थी, वे तो पूरे चुनाव अभियान में मंहगाई, आतंक और भारतीय प्रतिमानों को खंडित किए जाने के मुद्दे भी नहीं उठा पाए, इतने गहरे तक सोचने की तो बात ही छोçड़ए। बहरहाल मुद्दा कांग्रेस के चमत्कार का कम, वंचितों में आए बदलाव का अधिक है। अब चाहे इसे काई युवाओं का चमत्कार कहे या फिर कांग्रेस के वंश का बढ़ता जनाधार कहे। सबकी कहने सुनने की अपनी लालसाएं और मजबूरियां भी तो हैं।
-लोकेन्द्र पाराशर

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