रविवार, 29 मार्च 2009

हम बदल रहे हैं, हम बदलकर रहेंगे

लोकेन्द्र पाराशर


हमारे एक मित्र के घर जब तक बेटा पैदा नहीं हुआ। तब उन्होंने तमाम देवी देवताओं की आराधना की। यज्ञ किए, भण्डारे किए। संतति का सुख सामने आया। बेटा एक वर्ष का हुआ तो जन्म दिन उत्सव की धूम भी हुई। उन्होंने भ्रूण हत्या से उत्पादित केक को टेबल पर सजाया, उस पर मोमबत्ती लगाई और `कुल दीपकं से कहा- `बेटा! फूंक मारकर इसे बुझाओ और यह लो चाकू इस केक को काट डालों। बात हमारी समझ नहीं आई कि जिसे पाने के लिए सैकड़ों मंदिरों में दीपक जलाए गए, उसके जन्म दिन पर रोशनी बुझा क्यों दी गई। पिता से पूछा `भाई साहब यह आप क्या करवा रहे हैं? काट रहे हैं? बुझा रहे हैं? वे बोले- `क्या करें जमाने का चलन है, बच्चे मानते नहीं हैं।ं अब सोचिए कि क्या एक साल का बच्चा भी मानता नहीं है।
अरे! आपने उस बच्चे को पहले ही साल से बताया कहा¡ कि हम भारतीय हैं, हम सर्वश्रेष्ठ हैं। इसीलिए वह साल दर साल इसी बबाल में बढ़ता गया और नए साल का नंगा धमाल करने लगा। उसे क्यूं समझ में आएगा कि मैं उस सर्वश्रेष्ठ संस्कृति का प्रतिनिधि हू¡ जिसने विश्व को `मानवं बनने की शिक्षा दी।
अंगे्रज चले जाने के बाद अंग्रेजियत नहीं जाने का मलाल हमें लगातार सताता रहा। समाज के श्रेष्ठ जनों के स�मुख त्यौहार मनाने के तांडवी तौर तरीके सचमुच विचलित कर देने वाले थे। उनकी इसी चिंता और चिंतन से ही शायद यह संभव हुआ कि हवा पुरवईया होने लगी है। क्0 साल पहले तक त्यौहारों के नाम पर ताण्डवों का जो स्वरूप था, उनका प्रभाव अब बहुत कम होने लगा है। एक ओर जहां शराब पीकर आधी रात में निकले युवा जोड़ों के कपड़े फटे, तो वहीं दूसरी और काशी मंे गंगा तट पर लाखों दीप अपने नए वर्ष की आरती में जगमगा उठे। यह दीगर बात है कि मीडिया को शराबी औरतों के साथ हुई बदसलूखी में राष्ट्रीय सुरक्षा का संकट दिखाई दिया और काशी मंे श्रेष्ठ संस्कृति के पुनुरूत्थान की जगमगाहट से मीडिया के कैमरों के लैंस खराब हो गए।
परंतु क्या फर्क पड़ता है। मीडिया के सिर पर सवार `लाल रंगं और पेट में पड़ने वाले बहुराष्ट्रीय कंपनियों के टुकड़ों में इतनी ताकत कहा¡ है कि वह तपस्वीयों को तनिक भी डगमगा सके। इसी तप का परिणाम है कि दस वर्षों में हम अपने राष्ट्र के जागरण की चेतना को निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं। फ्क् दिस�बर की रात अभिवादन आने पर आज यह कहने वाले गवीüले भारतीयों की सं�या उत्साहजनक तरीके से बढ़ रही है कि `क्षमा करें अपना नया वर्ष तो गुड़ी पड़वा से शुरू होता हैं। कुछ अज्ञानी अभी भी कुतर्क करते हैं कि ऐसा है तो फिर आप तारीखों और अंग्रेजी महीनों के हिसाब से काम क्यों करते हैं। इन बेचारों को शायद यह ज्ञान नहीं है कि स�यता और संस्कृति दोनों अलग-अलग बातंे हैं। स�यता भौतिक रूप से जीवन जीने की एक शैली है और संस्कृति मनुष्य समूह के अलौकिक रूप से उत्थान की द्योतक है। पश्चिम में मनुष्य के पशुता से ऊपर उठने के क्रम में आने वाले भौतिक परिवर्तनों को संस्कृति माना गया है, जबकि भारतीय दर्शन आध्याçत्मक रूप से आने वाले परिवर्तनों को संस्कृति मानता है। अतज् स्पष्ट है कि हमारी लौकिक कार्य पद्धति अंग्रेजियत अथाüत् पश्चिम से प्रभावित है। लेकिन जैसा कि पहले कहा वक्त ने करवट लेना शुरू की है। हमें समझ में आने लगा है कि हम कहा¡-कहा¡ धोखा खा रहे हैं। जब परिवर्तन सकारात्मक रूप से होने लगा है तो वह दिन भी जरूर आएगा कि जब हमारी यह नहीं तो अगली पीढ़ी अपनी कालगणना, अपनी तिथि और अपने महीनों के हिसाब से दुनियां के दुष्चक्र का हिसाब चुकता करेगी। इस संस्कृति में धैर्य है, हड़बड़ाहट नहीं है। यह संस्कृति अपनों को तराशती है, तीर-तलवार की दम पर दूसरों को तलाशती नहीं है।
आज हमारे जिन लोगों को यह भ्रम हो गया है कि `अपनी मा¡ को भट्टीं कहने से ही उनके राजनैतिक भूगोल का विस्तार हो सकेगा, तो उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार लोग पग-पग मीडिया की पीगों पर पीक कर रहे हैं, राजनेताओं के प्रयासों को भी समाज बहुत गहरे से समझ रहा है। इस देश में अब यह चर्चा होने लगी है कि भारत के सनातन समाज को खण्डित करने का पाप कुछ नेताओं ने किया है। अरे कुछ नेता तो इतने गिर गए हैं कि वे मर्यादा पुरूषोत्तम के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर देते हैं। भगवान राम की कृति `राम सेतुं पर बुलडोजर चढ़ा देते हैं। अमरनाथ की पवित्रता के साथ पाप करते हैं, शंकराचार्य जी को गिर�तार करवा देते हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों के वोटर कार्ड बनवा देते हैं और आतंकवाद से कराह रहे देश में `अफजलों के कुनवें को दामाद सा आदर देते हैं।
यह सच ही है कि भारत आज वोट के भूखे तमाम आताताई नेताओं की करतूतों से ही कराह रहा है। उनके वोटों की भूख इस कदर बढ़ी है कि दुष्ट नवसंवत्सर जैसी नई उमंग में `भंगं डालने पर आमादा है। उनकी चिंता है कि कहीं भारतवंशियों की यह चेतना जाग्रत न हो जाए कि वे सबसे पहले इस राष्ट्र के हैं और फिर किसी और के। यदि ऐसा हुआ तो सत्ता का स्वरूप भी बदलेगा। यह सही है राजनैतिक सत्ता सर्वशक्तिमान नहीं होती, लेकिन यह भी सही है कि राजनैतिक सत्ता आज निणाüयक भूमिका में है। सौभाग्य से इस संवत्सर में देश की सत्ता का नव चयन भी होना है। इसलिए समाज को तुरंत इस बात पर भी चिंतन कर लेना चाहिए कि सत्ता की चाबी किसके हाथ में हो। क्या उसके हाथ में हो जो पश्चिम का दरवाजा खोलकर कहते हैं कि `मैं भारत को बेचने आया हूòं या फिर उनके हाथ में हो जिनके सीने में भारत को सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ और स्वाभिमानी राष्ट्र बनाने की आग धधक रही है।
बीते पांच सालों में इस राष्ट्र ने जैसी राष्ट्रघाती विभीषिकाएं झेली हैं वह किसी भारतवंशी से छुपी नहीं है। लोकतंत्र के महायज्ञ में हमें यह आह्वान करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हम इस महासमर को उसके अस्तित्व को बचाने के लिए लड़े। क्योंकि हमारे ऊपर अत्याचार उन लोगों की खातिर किया जा रहा है जिन्हें हमारी सर्वग्राही संस्कृति ने `अतिथि देवो भवज्ं की पर�परा के तहत अंगीकार किया। हमने उन खंजरों को भुला दिया, जो हमारे खून से सने थे, हमने अपने वतन के टुकड़े कर सोचा कि चलो अब तो चैन से रहेंगे। लेकिन हमारे धैर्य की परीक्षा का आखिरी पड़ाव शायद अब इसलिए आ चुका है कि जिन्हें हमने मेहमां बनाया, घर में बसाया, वे अब बाहर से बुलाकर उसी घर में `उन्हेंं बसा रहे हैं, जो कश्मीर, काशी, इंद्रप्रस्थ, असम और मुंबई मेंे बम बरसा रहे हैं। समझ लीजिए, संकल्प लीजिए, अब उनके विरूद्ध, जो आतंक की मेहमां नवाजी करने वालांे के वोटों की खातिर भारतवंशियों को कोस रहे हैं। सहिष्णु समाज को `हिन्दु आतंकवादं जैसे घिनौने संबोधन दे रहे हैं। अब समाज का जागरण शुरू हुआ है तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा ही। स्व पर अभिमान और स्व देश के लिए स्व रक्षा के लिए समग्र भारतवंशियों के सहस्त्रों हाथ अब उठ चुके हैं।
वंदे मातरम्

9 टिप्पणियाँ:

अजय कुमार झा ने कहा…

aapkaa hardik swaagat hai, kuchh bhee tippnni karne se behtar hai ki ye kahun ki ab to niyamit hee aanaa jaanaa hoga apke blog par.

AAKASH RAJ ने कहा…

आपका स्वागत है हिंदी ब्लॉग जगत में .....

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

swaagat hai....shubhkamnayen.

mastkalandr ने कहा…

हमारी सर्वग्राही संस्कृति ने `अतिथि देवो भवज्ं की परपरा के तहत अंगीकार किया। हमने उन खंजरों को भुला दिया, जो हमारे खून से सने थे, हमने अपने वतन के टुकड़े कर सोचा कि चलो अब तो चैन से रहेंगे। लेकिन हमारे धैर्य की परीक्षा का आखिरी पड़ाव शायद अब ...
बिलकुल सही लिखा है मित्र आपने ,सब वोट बैंक का चक्कर है..,
आदमियत कि शर्त है एअ 'दाग'
खूब अपना , बुरा-भला समझें.
पर वो सुबह जरूर आएगी ..और अब ज्यादा दूर नहीं ..., मक्

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

Jaree Rahe Sada hee
ye karwan hamara

Deepak Sharma ने कहा…

मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
@कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.co.in (http://www.kavideepaksharma.co.in/)
इस सन्देश को भारत के जन मानस तक पहुँचाने मे सहयोग दे.ताकि इस स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके और आवाम चुनाव मे सोच कर मतदान करे.

अभिषेक मिश्र ने कहा…

सार्थक विचार, स्वागत ब्लॉग परिवार में.

दिल दुखता है... ने कहा…

मुझे ये जान कर ख़ुशी हुयी की स्वदेश ब्लॉग पर आ गया है... मैं भी स्वदेश परिवार का सदस्य हूँ.....

Jitendra Dave ने कहा…

Sundar aur samyik prayaas. swadesh ko internet pe dekhkar achchaa lagaa. kripyaa news ki bajaay vichaarottejak lekh aur sampaadakiya blog pe release kere toh chchaa lagegaa.

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