रविवार, 29 मार्च 2009

होली पर हमले के पीछे कौन?

लोकेन्द्र पाराशर


पूरी कहानी बताने की जरुरत नहीं है कि महात्मा ने बच्चे को मिठाईü खाने से मना करने में कई सप्ताह का समय क्यों लगाया। कहानी का सार तत्व यही है कि महात्मा ने पहले नैतिकता को ध्यान में रखकर स्वयं मिठाईü खाना छोड़ी, तब उपदेश दिए। बच्चा मान गया, उसके दांत सड़ने से बच गए। इस कहानी को खूब सुनाया जाता है। ऐसे पाखंडियों की आज भरमार है जो दिन भर ऐसे उपदेशों को ढूंढते रहते है जिससे लोग उनकी वाह-वाह करने लगें। उनका आडंबरी आभामंडल जब समझ में आता है तब तक वे समाज को बहुत गहरे तक आहत कर चुके होते हैं। हिन्दू समाज भी आज ऐसी आडंबरी और दंभी शçक्तयों का शिकार हो रहा है। कुछ ताकतें जो समाज को प्रभावित करती हैं, उन्हें या तो भ्रम हो गया है या फिर वे किसी षड़्यंत्र के तहत सहिष्णु हिन्दू समाज की मान्यताओं, परंपराओं, उत्सवों और प्रतीकों पर नित नए सवाल खड़े कर रही हैं। उनका काम समाज तक सूचनाएं और विचार पहुंचाने का है लेकिन वे अब न्यायाधीश बनने को आतुर हैं। आजकल वे हिन्दू समाज को उंगली पकड़कर बता रहे हैं कि ऐसे ही खेलो, वरना तुम होली खेलकर सामाजिक अपराध करोगे। इनमें कोई दो मत नहीं कि पानी जैसी अमूल्य वस्तु का अपव्यय नहीं होना चाहिए, लेकिन क्या किसी समाज की व्यवस्था से उल्लास के रंग कम करने से ही पानी बच जाएगा। आज भी हजारों गैलन पानी टूटी टोंटियों से बह रहा है, जो उपदेश दे रहे हैं वे कमाई के लिए खुद के बनाए मनोरंजन पाकोü में लाखों गैलन पानी बहा रहे हैं, इनकी सैकड़ों कारों को चमकाने के लिए कितना पानी प्रतिदिन बहाया जाता है। ड्राइंग रूम में बैठकर समाज की मीमांसा करने वालों से कोई पूछे कि इन्हें अपनी निजी स्वीमिंगपूल में नहाने के लिए प्रतिदिन कितना पानी लगता है।
हम होली कैसे मनाएं? यह आक्रामक तरीके से समझाना ही संदेहास्पद है। भारत समाज सुधारकों का एक लंबा इतिहास रखता है, लेकिन उनकी याद में सिर इसलिए झुकता है कि वे त्यागी भी थे, संग्राहक नहीं। बात पानी तक होती तब भी शायद बदाüश्त कर लिया जाता, वे तो सूखी होली को भी सामाजिक अपराध की संज्ञा दे रहे हैं। भगवान न करे किसी दिन पता चले कि रंग बनाने वालों से कोई व्यावसायिक लाभ न मिलने के कारण यह पूरा अभियान चलाया गया था। तब समाज के विश्वास को कहीं बाबा भारती की कहानी की तरह धक्का तो नहीं लगेगा।
आज सबसे प्रमुख सवाल यह भी उठता है कि इन कथित समाज सुधारकों को वैलेण्टाइन डे पर यह प्रचार करने की याद क्यों नहीं आती कि यह एक शोक दिवस है। इनकी हि�मत क्यों नहीं होती यह लिखने की कि बकरीद पर बकरे काटना जीव हिंसा है। ये लोग क्यों नहीं लिखते कि नए साल की आड़ में फ्क् दिस�बर की रात शराब के नशे में अश्लील हरकतें करना त्यौहार मनाने की हमारी परंपरा नहीं है। क्योंकि ये डरपोक और लालची है। जीव हत्या की बात बकरीद पर नहीं करते, नाग पंचमी पर नाग पूजा का विरोध करते हैं। इन्हें पबों में नंगी नाचने वाली लड़कियों का विरोध मानव अधिकारों का हनन दिखता है, कश्मीर से बेदखल किए गए लाखों हिन्दुओं की बहन बेटियों के साथ हुए दुराचार इन्हें दिखाई नहीं देते। ये हमारे शंकराचायोü पर आरोपों को अपराध सिद्ध कर देते हैं। वषोü से जिहादी आतंक का दंश यह देश झेल रहा है, लेकिन हमारे मित्रों को उसमें इस्लामी आतंक दिखाई नहीं देता। वे कहते है आतंक का कोई मजहब नहीं होता। लेकिन जब किसी साध्वी को आतंक के आरोप में पकड़ा जाता है तो उनके शŽदकोश में तुरंत हिन्दू आतंकवाद जुड़ जाता है। ये यौन शिक्षा की वकालत करेंगे, नैतिक शिक्षा को पुनज् शुरु करने की बात भीनहीं करेंगे।
ऐसा नहीं है कि समाज समझ नहीं रहा है। इनके कारनामों से खबर की विश्वसनीयता पर सवाल उठना अब दिनचर्या है। आज समाज को उठ खड़ा होना होगा ऐसे कुçत्सत प्रयासों के विरुद्ध जिनका उद्देश्य मात्र ही हमारी संस्कृति का पतन है। समाज ऐसी ताकतों का मुकाबला करे अपनी परंपराओं पर गर्व करके । अपनी मस्ती, अपने उल्लास को कम करके हम जाएंगे कहां। होली पर हम ध्यान जरुर रखें कि किसी को नुकसान न हो। पानी की बबाüदी हम जरुर रोकें, लेकिन ठकोसलों से नहीं, आत्मानुशासन से। स्वयं को नियति नियंता समझने वाले दंभियों को जवाब देना आज जरूरी है। आज से होली है और अभी तय करें कि इस बार हम अपने उन अपनों के घर तक भी जाएंगे, जिन तक गत होली पर नहीं पहुंच पाए थे। भारत का समाज एक जिंदा समाज है और वह जिंदा उन्हीं लोगों के कारण है जिनका सरोकार चौपालों, चौराहों और अपने शानदार त्यौहारों से है।
शुभ होली

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