सोमवार, 3 अगस्त 2009

मुशर्रफ के खिलाफ फैसला

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ मुसीबत में हैं। हालांकि इन दिनों वे यूरोप के विभिन्न देशों की व्याख्यान यात्रा पर हैं; लेकिन पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने मुशर्रफ के आपातकाल लगाए जाने के फैसले को असंवैधानिक ठहरा दिया है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी कह रहे हैं कि मुशर्रफ के मामले में नेशनल असेम्बली को फैसला लेना चाहिए। मुशर्रफ के खिलाफ चल रही कार्रवाई से चिंतित सऊदी अरब के पाकिस्तान में राजदूत अब्दुल अजीज बिन इब्राहीम अल गदीर ने पत्रकारों से कहा है कि यदि परवेज मुशर्रफ अनुरोध करेंगे तो सऊदी अरब उन्हें राजनीतिक शरण देने के लिए तैयार है। खास बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट में जब पूर्व राष्ट्रपति के क्रियाकलापों पर सुनवाई हो रही है तब वे वहां नहीं हैं। कहा जा सकता है कि यह इकतरफा कार्रवाई हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने परवेज मुशर्रफ के निवास पर समन्स चस्पा किए हैं; वे विदेश यात्रा पर हैं। वैसे एक टेलीविजन चैनल ने परवेज मुशर्रफ से अदालत के फैसले पर टिप्पणी चाही; उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया है। पाकिस्तान में यह मांग जोर पड़क रही है कि परवेज मुशर्रफ के विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाए। जाहिर है कि नेशनल असेम्बली या सुप्रीम कोर्ट में परवेज मुशर्रफ के खिलाफ देशद्रोह के मामले में कार्रवाई शुरू हुई तो टकराव हो सकता है। दरअसल वर्तमान सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे जनता में उसके प्रति भरोसा पैदा हुआ हो। आतंकी हिंसा की घटनाएं बढऩे से लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। भ्रष्टाचार महंगाई से लोगों का जीवन यापन दूभर हो रहा है। मुशर्रफ ने सत्ता में रहते भले ही कुछ भी नहीं किया हो; लेकिन कठोर प्रशासक की इमेज तो बनाई ही थी। वैसे पाकिस्तान की जनता को लोकतांत्रिक सरकार से बहुत उम्मीद थी; लेकिन राजनीतिक दलों के नेताओं ने सेना और इस्लामी कट्टरपंथियों का प्रभाव कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया। वे आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहे। सेना के कमांडर सत्तारुढ़ नेताओं को आपसी खींचतान में उछले रहने के लिए ही उकसाते रहे। वैसे परवेज मुशर्रफ को उम्मीद है कि वे पाकिस्तान की सत्ता में फिर से लौटेंगे। अपने विदेशी दौरे के दौरान भी पाकिस्तान के अंदरुनी हालात पर नजर रखे हुए हैं। वे ऐसे मौके की तलाश में हैं जब वे सत्ता में लौट सकें। फिलहाल ऐसा होने के आसान दिखाई नहीं दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से आपातकाल लागू किए जाने के परवेज मुशर्रफ के फैसले को असंवैधानिक करार दिया है उससे इतना तो साफ ही है कि न्यायपालिका, वकील अभी भी गुस्से से भरे हुए हैं। देशद्रोह का मुकदमा चलाए जाने की मांग पर जिस तरह से प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी ने नेशनल असेम्बली में कार्रवाई करने का विचार रखा है। उससे साफ है कि वे यह देख लेना चाहते हैं कि किस राजनीतिक दल के नेता कार्यकर्ता मुशर्रफ के साथ जा सकते हैं और नेशनल असेम्बली में चलने वाली कार्रवाई पर जनता में क्या प्रतिक्रिया होती है। यह तो साफ ही है कि मुस्लिम लीग कायदे आजम परवेज मुशर्रफ के साथ हैं। इसमें दो राय नहीं है कि परवेज मुशर्रफ ने जिस तरह से नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर सत्ता पर कब्जा जमाया और शासन किया, उस सारे मामले पर न्यायिक कार्रवाई होनी चाहिए; ताकि भविष्य में लोकतांत्रिक सरकार को उखाडऩे की कोई हिम्मत नहीं कर सके; लेकिन ऐसा करने से पहले, राजनीतिक दलों में आम सहमति बनाए जाने और सेना के अधिकारों में कटौती किया जाना जरूरी है।
- संपादक

बुधवार, 29 जुलाई 2009

लोकप्रियता के लिए होड़

पिछले तीन दिन से जम्मू कश्मीर विधानसभा सत्तारुढ़ नेशनल कांफ्रेस और विपक्षी पी डी पी के लिए अखाड़ा बनी हुई है। पहले दिन यानि परसों महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में पी डी पी विधायकों ने शोपियां में दो महिलाओं के साथ हुए बलात्कार के मामले को लेकर हंगामा खड़ा किया। महबूबा मुफ्ती विधानसभाध्यक्ष की आसंदी तक पहुंच गई उन्होंने उनका माइक तोड़ डाला। परिणामत: मार्शल के जरिए महबूबा को सदन के बाहर निकाला गया। दूसरे दिन पीडीपी के विधायक मुजफ्फर बेग ने मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर विधानसभा में आरोप लगाया कि उनका नाम 2006 में श्रीनगर में हुए सेक्स स्केण्डल की सूची में शामिल है। मुजफ्फर बेग के इस आरोप से उमर अब्दुल्ला तैश में आए और उन्होंने आरोप का खंडन तो किया ही साथ ही यह भी कहा कि वे राज्यपाल को अपना इस्तीफा देने जा रहे हैं। विधानसभा में ही नेशनल कांफ्रेस के विधायकों ने उमर अब्दुल्ला को राजभवन जाने और इस्तीफा देने से रोकने का नाटक किया। उमर अब्दुल्ला राजभवन पैदल गए; राज्यपाल को इस्तीफा सौंपा; लेकिन उन्होंने उसे मंजूर नहीं किया। अब तीसरे दिन पीडीपी विधायक विधानसभा से लेकर श्रीनगर की सड़कों पर उमर अब्दुल्ला से इस्तीफा मांग रहे हैं। कहा जा सकता है कि उमर अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर बलात्कार और सेक्स कांड मामले में अपने लिए जन सहानुभूति बंटोरने की कोशिश की थी, उसमें उन्हें लेने के देने पड़ गए हैं। यह सही है कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से नेशनल कांफ्रेस द्वारा जम्मू कश्मीर में सरकार बना लेना पर पीडीपी नेताओं के पेट में दर्द हो रहा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है; क्योंकि पिछली विधानसभा में कांग्रेस और पीडीपी की मिली जुली सरकारें थीं यह बात दूसरी है कि पिछले साल इन्हीं दिनों अमरनाथ श्राईन बोर्ड की भूमि दिए जाने के मामले पर पीडीपी और कांग्रेस का गठबंधन टूट गया था और मुख्यमंत्री गुलाम नवी आजाद को इस्तीफा देना पड़ा था। अब जब से जम्मू कश्मीर में नेकां कांग्रेस की सरकार बनी है पीडीपी इस सरकार को गिराने के लिए कोई न कोई मुद्दा उठाकर हंगामा खड़ा कर रही है। वैसे उमर अब्दुल्ला ने भी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का नाटक कर महबूबा मफ्ती के नहले पर दहला मारने की कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। वैसे उमर अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा से महबूबा मुफ्ती के हाथ पांव तो फूल गए थे; लेकिन श्रीनगर से नई दिल्ली तक सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं ने उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से रोकने, राज्यपाल को इस्तीफा न स्वीकारने के दिए गए संकतों ने महबूबा मुफ्ती को सबसे बड़ी राहत दे दी। वैसे विधानसभाध्यक्ष द्वारा सीबीआई प्रमुख से श्रीनगर सेक्स कांड में उमर अब्दुल्ला के शामिल होने के बारे में ली गई सफाई ने उमर अब्दुल्ला के इस्तीफे को नाटक में बदल दिया। बेशक जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की सरकार तो बच गई; लेकिन इस सरकार का नैतिक बल निकल चुका है। जिस तरह से तीसरे दिन पीडीपी के विधायकों ने विधानसभा और कार्यकर्ताओं ने श्रीनगर की सड़कों पर हंगामा खड़ा किया है उससे साफ है कि लोकप्रियता की इस जंग में उमर अब्दुल्ला से आगे निकलने की कोशिश महबूबा मुफ्ती कर रही हैं।
~ संपादक

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

महंगाई से राहत नहीं

आम आदमी को महंगाई से कोई राहत मिल पाएगी इसकी तो दूर-दूर तक संभावना दिखाई नहीं देती। रिजर्व बैंक ने भी अपनी मौद्रिक समीक्षा रिपोर्ट में कहा है कि महंगाई चार से पांच प्रतिशत तक बढ़ सकती है। हालांकि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी इस बात को बार-बार दोहरा रहे हैं कि विकास दर को बढ़ाने के साथ महंगाई को काबू में लाने के उपाय कर रहे हैं; लेकिन रिजर्व बैंक ने भी विपक्षी नेताओं की तरह सरकार से पूछ लिया है कि बजट में छोड़े गए घाटे की पूर्ति के लिए वे कौन से उपाय करने वाले हैं। रिजर्व बैंक ने अपनी कर्ज नीति में कोई बदलाव नहीं किया है; जो अपेक्षित ही था। रिजर्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव ने बैंकों के प्रबंधन से एक बार फिर कहा है कि ब्याज दरों में कटौती करके कर्ज को सुलभ बनाया जाए। सरकार और रिजर्व बैंक के दबाव में बैंकों ने कर्ज की ब्याज दरों में तो कमी कर दी है; लेकिन एनपीए के भय से कर्ज उपलब्ध कराने में बेहद चौकस रवैया अपनाया जा रहा है। वैसे रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक समीक्षा में वित्तमंत्री के लिए अनुमानित विकास दर में बढ़ौतरी की है; लेकिन मुद्रास्फीति का भय बरकरार है। रिजर्व बैंक ने कहा है कि जब तक अर्थव्यवस्था में निश्चित तौर पर सुधार के संकेत नहीं दिखते तब तक रिजर्व बैंक एक समायोजित मौद्रिक नीति को बनाए रखेगी। रिजर्व बैंक ने माना है कि मुद्रास्फीति की दर चार प्रतिशत के बजाय पांच प्रतिशत रहेगी। रिजर्व बैंक रेपो और रिवर्स रेपो दर में कटौती करके मुद्रास्फीति को कम करने की स्थिति में नहीं है; क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम आने का खतरा बढ़ गया है। बाजार में पर्याप्त तरलता के साथ-साथ लोगों को ज्यादा खर्च के लिए उत्प्रेरित करना जरूरी हो गया है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने आवास और शिक्षा कर्ज में एक प्रतिशत अनुदान की घोषणा इसी वजह से की है ताकि देश में कर्ज लेकर लोगों में मकान ही नहीं वाहन खरीदने की प्रवृत्ति बढ़े; लेकिन बैंक के अधिकारी मकान और वाहन के लिए दिए गए कर्ज के ब्याज, और कर्ज की किश्तों के वापिस जमा न होने से चिंतित हैं। सरकार भले ही दावा कर रही हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट से बाहर आ गई है; लेकिन इसके चिन्ह कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। फिर मानसून की गड़बड़ी ने चिंता और बढ़ा दी है। महंगाई तो अपने चरम पर है। सरकार इसे कम करने या स्थिर रखने के उपाय नहीं कर पा रही है। यह दावा जरूर किया जा रहा है कि सरकार ने महंगाई पर काबू पा लिया है; लेकिन जब जेब में रुपए और हाथ में झोला लेकर उपभोक्ता बाजार में रोजमर्रा का सामान खरीदने जाता है तो सब्जी वाले से सब्जी के दाम सुनते ही पसीने छूटने लगते हैं। दरअसल इस महंगाई को बढऩे का मौका छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से मिला है। सरकारी कर्मचारी की जेब पर तो महंगाई का असर नहीं हो रहा है क्योंकि उसे बढ़ा हुआ वेतन सरकार से मिल रहा है; लेकिन गैर सरकारी कर्मचारी और आम आदमी का जीवन दूभर हो रहा है। वैसे सरकार यह कहती रही है कि उसका सारा प्रयास विकास दर को बढ़ाने का रहने वाला है; घाटा और मुद्रास्फीति उसके लिए बड़ी चिंता का कारण नहीं है। मानसून की गड़बड़ी ने हालात गंभीर बना दिए हैं।
-संपादक

अंचल की बदहाल कानून व्यवस्था

ग्वालियर अंचल की बदहाल कानून व्यवस्था में लूटेरों व हत्यारों के हौसले काफी बुलंद हो चुके हंै क्या घर क्या सड़क क्या सफर कहीं भी कोई सुरक्षित नहीं है सुबह की सैर व शाम की बाजार की खरीदारी भी खतरों के बीच हो रही है। राह चलती महिलाओं के गले से चैन लूटने की दर्जन भर से अधिक वारदात हो चुकी हैं एक महीने के भीतर शहर के दो प्रतिष्ठिïत व्यापारियों को गोली मार दी गई। खुलेआम कहर बरसा रहें हत्यारों व लुटेरों को रोकने व दबोचने के लिए पुलिस के पास कुछ रह नहीं गया है ऐसा लगता है कि शहर ही नहीं अंचल से भी पुलिस का नाम गायब हो गया है। पिछले माह गोहद विधायक की चुनाव प्रचार के दौरान गोली मारकर हत्या के बाद से तो ऐसा लगा कि हम कहीं बिहार की ओर तो नहीं बढ़ रहे है तब तर्क दिए गए पूर्ण समन्वितकि हत्या आपसी रंजिश का नतीजा है आपसी रंजिश कहकर अपना बचाव करने वाली पुलिस आज तक यह सिद्घ नहीं कर सकी है कि विधायक माखन जाटव की हत्या की वजह क्या है। ठीक इसके उलट अंचल की पुलिस की बहादुरी देखिए अवैध रूप से गौवंश की तस्करी कर ला रहे लोगों के खिलाफ आवाज उठाने वाले गौभक्तों को भिण्ड पुलिस ने इतनी बेरहमी से पीटा कि गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। ग्वालियर अंचल को कुछ साल पहले तक शांतिपूर्ण क्षेत्र माना जाता था लेकिन पिछले कुछ माह में यहां सरेराह व घर में घुसकर लूटों व हत्याओं से जनमानस में भीतर तक डर व दहशत बैठ गई है इसे दूर करने के लिए कुछ करने की बजाय अंचल की पुलिस अधिकारी जांच के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा श्रेय लेने की होड़ में लगे हुए हैं। विधायक की हत्या की जांच का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पुलिस अभी तक हत्या का कारण भी पता नहीं कर सकी है और न ही आरोपियों से जुर्म कबूल करवा सकी है। जुर्म कबूल करबाने आरोपियों का नार्को टेस्ट कराने अहमदाबाद ले गई मगर वहां से भी बिना टेस्ट के ही आरोपियों को वापस ले आई। जब विधायक की हत्या के मामले में पुलिस की यह कार्यशैली है तब आम जनता के साथ क्या हो रहा है वह लिखने की जरूरत नहीं है। मई में शहर के दो प्रतिष्ठिïत व्यवसाईयों की गोली मार कर हत्या के मामले में पुलिस से बहुत उम्मीद लगाना कोरी नासमझी ही साबित होगी। कारण जो अधिकारी यहां पदस्थ है उनका ध्यान व नजरें बढ़ते अपराधों पर न होकर कमाई कैसे बढ़ाई जाए इस पर है। माह के प्रारंभ में तेल कारोबारी सेवकराम खत्री की लूट के बाद हत्या के मामले में स्थानीय मंत्री की फटकार के बाद शहर पुलिस ने जो पर्दाफास किया वह राह चलते आदमी के भी गले नही उतर रहा। जिस व्यापारी से साढ़े सात लाख की लूट हुई उसके लुटेरों से पुलिस मात्र 6 हजार ही बरामद कर सकी। लगता है मंत्री की चेतावनी को बेअसर करने के लिए पुलिस ने यह तरकीब निकाली और पर्दाफास की घोषणा कर दी। लेकिन हत्या के लगभग एक माह बाद पुलिस सिवाय आश्वासनों के कुछ भी परिणाम नहीं दे पा रही है। कल की घटना ने तो पूरे शहर को जैसे सन्निपात की स्थिति में ला दिया जिसने सुना वहीं दंग रह गया कि आखिर हम कहां सुरक्षित रह सकते हैं यह सवाल सबकी जुबां पर है। हत्याओं के अलावा घर में घुसकर लूटों व राह चलती महिलाओं के गले से चैन छीनने की घटनाओं ने पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी डर व भय के गहरे सदमे में जीने को मजबूर कर दिया। शहर व अंचल को लूटेरों व हत्यारों के आतंक से निजात दिलाने में नाकाम रहने वाले नाकारा पुलिस अधिकारी आखिर यहां पदस्थ क्यों है यह सवाल हर नागरिक जनप्रतिनिधियों व शहर के मंत्रियों से पूछ रहा है। इसे ग्वालियर व अंचल का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाए कि प्रदेश के गृहराज्यमंत्री इसी शहर के है लेकिन वर्तमान में प्रदेश में सबसे खराब कानून व्यवस्था उन्हीं के शहर की हैं। आखिर क्यों ऐसे अधिकारियों को बर्दाश्त किया जा रहा है। हर नागरिक दो साल पहले के दबंग पुलिस अधिकारी के जैसे अधिकारियों की यहां तैनाती चाह रहा है जो शहरवासियों व अंचलवासियों को सुरक्षा प्रदान कर सके तथा जनता महसूस कर सके कि राज्य शासन की सुशासन की मंशा के अनुरूप काम नहीं करने वाले पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को कैसे ठीक किया जा सकता हैं।
-संपादक

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

संपूर्ण दुष्टïता संपन्न भीड़तंत्रात्मक नंगा राज


हमारे प्राथमिक स्कूल के शिक्षक ने ही बता दिया था कि हम एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। हमारा शासन हैं, हम ही चलाते है और हमारे लिए ही चलाया जाता है। शिक्षक जब ऐसा कहते थे तो आंखों में सपने ऐसे तैरते थे जैसे फूल पर आई सरसों के खेत पर हवा तैरती है। खुशबू समेटते हुए कोसों दूर तक बसंती राग सुनाती हुई। चलो हम बड़े होंगे, हमारी सरकार होगी, हमारी संस्कृति से चलेगी, हमारे सांस्कृतिक वैभव को और ऊंचाइयां मिलेगी, हम ''राम अभी तक हैं नर में, नारी में अभी तक सीता है को और मस्ती से गुनगनाएंगे। हमारे देश को शक, मुगल, हूण और अंग्रेजों ने जो दंश दिए हैं, उनसे उबर लेंगे। सब ठीक हो जाएगा।
यह विश्वास इसलिए और जमता चला गया कि जिस मंच पर देखो यही सुनते-सुनते हम बड़े हो गए कि ''कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। आज जब सुनने की बजाय देखने की बारी आई है तो जिधर, जिस मंच पर देखो यही, दिखाई दे रहा कि ''कुछ ऐसा करो कि मिट ही जाए हस्ती हमारी। विवाह पूर्व साथ-साथ रहो, समलैंगिकता पर गंभीरता से विचार करो, पबों में नंगी नाचने वालियों के अधिकारों की रक्षा करो, रियलिटी शो के नाम पर यह भी पूछ लो कि क्या आपकी इच्छा कभी किसी गैर के साथ सोने की होती है। यह सब पूरी चिंता के साथ करो। इसमेंं कहीं कोई लापरवाही हो गई तो फिर हम अपनी हस्ती नहीं मिटा पाएंगे।
पूरे देश में इन दिनों 'संपूर्ण दुष्टïता संपन्न भीड़तंत्रात्मक नंगा राज स्थापित होता दिखाई दे रहा है। सत्ता के भूखे, पैसे के भूखे, शरीर के भूखे भेडिय़ों के हाथों समूची व्यवस्था चेरी होती दिखाई दे रही है। इन भेडिय़ों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है और जाहिर है लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र में इस बढ़ती संख्या का मतलब क्या होता है। ताजा उदाहरण है कि आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले को लेकर भारत सरकार को हरकत में आने में भले ही समय लगा हो, लेकिन समलैंगिकता के समर्थन में एक प्रदर्शन ने सरकार से सहानुभूतिपूर्वक विचार का बयान जारी करवा दिया। सरकार के भीतर इस प्रवृति से किसकी सहानुभूति क्यों है, यह गंभीर विषय है।
इसी कड़ी में मध्यप्रदेश का शहडोल जिला जुड़ गया है, जहां सामाजिक संवेदना के सामने 'होम करते हाथ जलेÓ जैसी स्थिति पैदा कर दी गई है। कथित कौमार्य परीक्षण को लेकर हंगामा सड़क से संसद तक हो रहा है। वैसे तो सरकार की तरफ से स्पष्टï किया जा चुका है कि ऐसा कोई परीक्षण नहीं हुआ है। फिर भी हंगामा मचाने वाले तो मचाएंगे ही। पहले भोपाल में इस बात की जमकर शिकायतें हुईं कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के अंतर्गत सरकारी पैसा लूटने के लिए कई शादीशुदा जोड़े फिर से शादी कर रहे हैं। जांच करने में शिकायत सहीं पाई गईं। तब सरकार ने निर्णय लिया कि इस मामले में सावधानी बरती जाए कि अपात्र लोग इसका दुरूपयोग न कर सकें। ऐसा बताया गया है कि शहडोल जिले में हाल ही में इस योजना के तहत 152 कन्याओं के विवाह की योजना बनी । इस विवाह से पूर्व कुछ डाक्टरों ने पूर्व सावधानी के तौर पर लड़कियों से पूछताछ की तो 14 युवतियों ने गर्भ होना स्वीकार किया और जांच में पाया भी गया। अब इसका क्या कारण होना चाहिए, या तो युवतियां शादीशुदा है या फिर वे शादी से पूर्व शारीरिक संबंधों की समर्थक हैं। अब ऐसे में उन लोगों को जो शहडोल प्रकरण पर हायतौबा कर रहे हैं पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वे शादीशुदा की पुन: सरकारी खर्च से शादी कराना चाहते हैं या फिर विवाह पूर्व यौन संबंधों के वकील बनना चाहते हैं।
दलीलें कोई कुछ भी दे सकता है लेकिन विरोध करने वालों में यदि तनिक भी नैतिकता है तो वे अपने आप से पूछें कि इन दोनों में से एक भी परिस्थिति अपनी बहिन बेटी के साथ स्वीकार करेंगे क्या? मर जाएंगे, जमीन में धंस जाएंगे, जब कभी स्वयं के बारे में ऐसी कल्पना भी कर लेंगे। दूसरों के लिए कहना बहुत आसान है लेकिन क्या कोई चाहेगा कि उसका बेटा और बेटी समलैंगिक शादी करके घर में घुस आंए। छाती फट जाएगी, आसमान टूट पड़ेगा, उस घर के ऊपर।
अकेले में बात करो तो इस अपसंस्कृति पर चिंता करने वालों की कमी नहीं मिलेगी। लेकिन फिर भी आज कथित समाज सेवी संस्थाओं और मानवाधिकार वादियों के हाथों में जिनके समर्थन की तख्तियां दिखाई देंगी, वे होंगी, आतंक से जूझ रही सेना के विरोध में, जेल में सजा काट रहे अपराधियों के समर्थन में, पबों में नाचने वाली लड़कियों की अस्मिता (?) बचाने के लिए, यौन शिक्षा के समर्थन में। न तो कभी ये लोग कश्मीरी शरणार्थियों की बात करेंगे। इन्हें बर्फीली पहाडिय़ों पर लडऩे वाले सैनिक का दर्द कभी दिखाई नहीं देता। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो स्पष्टï करते हैं कि हमारे देश में कुछ पेशेवर हैं, कुछ गद्दार हैं, जिनका अपना एक सशक्त नैटवर्क है। यह नेटवर्क बड़ी चालाकी से हमारे सामाजिक तानेबाने में और सत्ता के गलियारों में विध्वंस की चिंगारियां छोड़ आता है, फिर दूर से तमाशा देखता है, ठहाके लगाता है। देखो देखो ये हिंदुस्तानी खुद की मर्यादाओं, संस्कृति और पुरा वैभव को कैसे धू-धू कर जला रहे हैं। दोषी कौन है? यह तलाश अब पूरी होनी चाहिए।
-लोकेन्द्र पाराशर

सोमवार, 18 मई 2009

कौन बनेगा प्रधानमंत्री

कौन बनेगा प्रधानमंत्री
ये मामला अब सुलझ गया
क्या है जनता का फ़ैसला
परिणामो से जाहिर हो गया
रेस मैं थे जो भी नेता
जनता की बात समझ गए
देश को चाहिए कमजोर पीएम
ये बात सब मान गए
कौन बनेगा प्रधानमंत्री
नतीजो से सब जान गेऐ
- निर्भय जैन

मायावी ठोकर ने दिलाई कांग्रेस को जीत

लोकसभा चुनाव परिणामों पर बहस जारी है। मीडिया में घुस आए तमाम चारण भाटों ने राजकुमार की जय जयकार कर रखी है। राजकुमारी के पांव पखारने को हमारी बिरादरी के तमाम बंधु बड़ी-बड़ी परात लेकर घूम रहे हैं। शोर इस कदर मचा रखा है जैसे अचानक अवतार हुए हैं और अब तो भारत वर्ष में खुशहाली की पींगे फूटने वाली हैं। अचानक पूरा देश युवा हो गया है। जिस पन्ने पर देखो, जिस स्क्रीन पर देखो, यौवन हिलोरें ले रहा है। इस नक्कारखाने में सच फिर कहीं खो रहा है। क्योंकि यह सच नहीं है कि कांग्रेस को पुनज् सत्ता राहुल की कथित परिपक्वता और प्रियंका की इंदिरा छवि के कारण मिल गई है। सच वह है जिसमें छलावा है, भावनाओं के साथ खिलबाड़ है। उस समाज के साथ धोखे का प्रतिफल है जो श्रमशील है, आज भी भावुक है और आज भी कहीं ऐसा स्थान ढूंढ़ रहा है जहां कुछ लोग उसे इंसान की तरह समान तो दे सकें।
यह वह वर्ग है जिसे आदमी के बीच भेट करने वाले दलित, शूद्र जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। यह वह वर्ग है जो लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति के लिए सदैव लंबी कतारों में खड़ा होता आया है। यह वही वर्ग है जिसे महात्मा गांधी ने दुलारा और डा. अबेडकर नेे समान से पुकारा। इस दुलार और समान के वशीभूत यह भोला वर्ग गांधी और बाबा साहब के जाने के बाद भी कांग्रेसियों को अपना माई बाप समझता रहा। चालाक कांग्रेसियों ने वर्षों तक इस भावुक वर्ग को खूब भुनाया। इंदिरा गांधी वर्षों तक गरीबी हटाओ का नारा दे देकर सत्ता हथियाती रहीं। भले गरीबी नहीं मिटी, गरीब मिटते रहे। उनका बजूद सिर्फ वोट तक ही रहा, बाकी सब फलीभूत होते रहे।
जब तक यह खेल चलता रहा, कांग्रेस का राजनैतिक चूल्हा भी जलता रहा। लेकिन यह खेल तब बिगड़ना शुरू हुआ जब पंजाब के रोपड़ जिले में जन्मे कांशीराम को समझ आया कि हमारे वर्ग के लोग लगातार ठगे जा रहे हैं। नारा गूंजा क्वबाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेंगे पूरां। कांशीराम के बारे में कोई कुछ भी कहे लेकिन उन्होंने दलितों में जागरूकता का अभियान पूरी निष्ठा और दृढ़ता से चलाया। देश में जातिवाद भड़का, समाज में दूरियां बढ़ी, यह सब सही है, लेकिन जब भी कोई सामाजिक क्रांति होती हैं तो उसके कुछ दुष्प्रभाव भी होते हैं। कांशीराम को इसका कोई राजैतिक अथवा भौतिक प्रतिफल कभी नहीं मिला। वे जिस मिशन में लगे रहे, उसका प्रतिफल उनकी शिष्या मायावती को मिला और शायद वहीं से बाबा साहब के मिशन को पूरा करने का कांशीराम का सपना चूर होने लगा। बीच बीच में कांशी-माया के बीच दूरियों की खबर आने लगीं और जिंदगी के अंतिम दिनों में वे मायावती के मायाजाल के आगे बेबश अपने परिवार तक को अपनी अंतिम इच्छा नहीं बता पाए।
कांशीराम की मृत्यु के बाद माया का असली स्वरूप सामने आया, जब भूखे और गरीबों की दम पर सिंहासन पर बैठकर उन्होंने करोड़ों की सपçत्त का स्वाद चखा और क्वहर कीमत पर सत्ता चाहिएं के फामूüले पर चलकर बहुजन को सर्वजन बनाने की नाटंकी कर डाली। सत्ता तो फिर मिल गई पर किस वेदना की कीमत पर यह क्वमायां में मगरूर माया को समझ नहीं आया। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जिस प्रकार टिकिट वितरण किया गया, उसके परिणाम इस लोकसभा चुनाव में बसपा को भुगतना पड़े हैं। क्योंकि विधानसभा चुनाव में जीतकर आए चेहरों को देखकर वंचित वर्ग के मतदाता को मन ही मन यह पीड़ा हुई कि जब दबंगों की पालकी ही उठानी है तो फिर बसपा को अपना कहने की जरूरत की क्या? वंचित वर्ग का मतदाता बसपाई घात के पश्चात से गुजर रहा है, यह कांग्रेस की समझ में आ गया और जैसे खोया सोना मिल गया हो, उसी तरह कांग्रेस सक्रिय हो गई और पिछले कई महीनों से वंचित वर्ग को आकर्षित करने के लिए प्रयास किए। लोहा गरम था, सो राहुल भैया का गरीब की झौंपड़ी में जाना, यानि भावुक मतदाता को पुनज् बरगलाने का मौका कांग्रेस को मिल गया। यही वह मतदाता है जिसके बसपाई हो जाने से कांग्रेस मिट रही थी और अब वही मतदाता जब बसपा के पाखण्ड को समझ गया तो कांग्रेस की तरफ मुड़ गया है। यानि कांग्रेस को 18 साल बाद मिले जन समर्थन का और कोई कारण नहीं है। 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई थी, तब से कांग्रेस के वोट में सेंध मारी हुई और जब बसपा जवान हुई तो उत्तर प्रदेश जैसे गढ़ में कांग्रेस लड़ खड़ा गई। कहने का मतलब सीधा है, कांगे्रस को मिला वोट, वंचितो को मिली मायावी चोट का मिशन है, बाकी कुछ नहीं। जैसा कि पहले कहा कि यह वर्ग आज भी अधिकांश भावुक है, अनपढ़ है, इसलिए भीड़ की ठेलमठेल में चलता है। राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे उसके चुनावी मुद्दे नहीं होते। दुभाüग्य है कि जो कांगे्रस इस वर्ग को 40-भ्0 वषोü तक सिर्फ बरगलाती रही, आज वह वग्ाü फिर उसी ठोकर वाली देहरी पर पहुंच रहा है। बसपा के सत्ता प्रेम के कारण वंचित वर्ग में यह टूटन उत्तर प्रदेश में तो बड़े पैमाने पर हुई, जबकि अन्य राज्यों से भी बसपा की टांगे उठ गई। और वोटों का थोड़ा सा इधर उधर होना भी चुनाव में बडे़ परिवर्तन दिखा देता हैं।
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग सामाजिक समरसता का जरिया बन सकती थी। जिनको इस समरसता की चिंता करनी थी, वे तो पूरे चुनाव अभियान में मंहगाई, आतंक और भारतीय प्रतिमानों को खंडित किए जाने के मुद्दे भी नहीं उठा पाए, इतने गहरे तक सोचने की तो बात ही छोçड़ए। बहरहाल मुद्दा कांग्रेस के चमत्कार का कम, वंचितों में आए बदलाव का अधिक है। अब चाहे इसे काई युवाओं का चमत्कार कहे या फिर कांग्रेस के वंश का बढ़ता जनाधार कहे। सबकी कहने सुनने की अपनी लालसाएं और मजबूरियां भी तो हैं।
-लोकेन्द्र पाराशर

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